गौरेया / निवेदिता झा
1)
झारखंड के खुबसूरत
जंगल के बीचों बीच मेरा घर
मेरे घर के सामने वह महुआ
मेरे पाले तोते, कुत्ते, मोर, बन्दर
और चुरा कर आया, वह बाघिन का बच्चा
मगर
सबसे अलग वह गौरेया।
रोज़ विद्यालय से लौटना
तेन्दु के पत्ते से बीड़ी बनाना
महुआ चुनना
फिर माँ की मार
चारों भाई बहन की यही दिनचर्या,
पिता का तबादला,
हमारा फफकना
कई रातों हमारा यूँही रोना
हम छोड़ आए
भूलतीं तो मैं कभी किसी को नहीं
फिर उसे कैसे
एक सुबह
दरवाज़े पर घायल वही
कोशिश अपने ज़ेहन पर
अरे वही
इतनी दूर...कैसे
इतनी मोहब्बत इन्सान नहीं कर पाते
आज
दिल्ली में मेरे पास सबकुछ
मगर वह दोस्त नहीं
आज फिर रुला गई तुम।
2)
तुमने मैंने देखा था वह घर
बाहर दालान पर
मिट्टी के ढेर के पास
जलेबी और सखुए के नीचे
वो
अब भी है।
कठोर आवरण के भीतर रहती तो है सबके
एक गौरैया आज भी
दिल के भीतर छोटी सी
चहचहाती जीवन्त करती बचपन के अहसासों को
इर्द-गिर्द बड़े से लटके घोंसले में
प्यार जन्म देती!
अब विलुप्त होती जा रही
कलयुग के बड़े बढ़े पैर
गाँव को शहर बनाते
और दिल के दरवाज़े पर चाहकर भी
कहाँ आ पाती है बाहर!
वैसे हम चाहें तो रूक जायगी वो
खोने से
जाने से...