घर फोड़नी / वंदना मिश्रा
बहन बड़ी थी कई साल
भाई को पीठ पर लाद-लाद घूमती रही सालों
माँ तो निहाल थी
अपने घर में व्यस्त बहन को
बातों बातों में पता चला
भाभी के दुर्व्यवहार की बातें
सोचा भाई तो अपना है
समझा लूँगी
" इतना कुछ बोलती है
पत्नी तुम्हारी मना नहीं करते " ?
भाई ने बेहयाई से कहा
" मैने तो छूट दी है
ज़्यादा बोलें तो बाल घसीट कर मारो भी। "
बहन को समझ नहीं आया कि वह अपना दिल संभाले
या दिमाग़
हथौड़े की तरह लगे शब्द से टकरा कर बैठ गई
माँ दौड़ कर आई
पानी पिला कर समझाया
शान्त किया
भाई ने माँ से कहा कह दो अपना घर देखे
भाभी के चेहरे पर खिली मुस्कान देख
बहन ने सिर झुका लिया
पीठ पर लदे भाई ने
कलेजे पर लात मारी
किससे कहे
माँ ने कहा " मुझे पता था
क्यों बोली तू उससे
पता तो है उसका स्वभाव "
सब पता था बहन को
बस अपना पराया होना
बार बार भूल जाती है
पर अब नहीं
माँ का हाथ पकड़ा और
अधिकार से बोली
" अब और नहीं माँ
तुम साथ चलो मेरे "
भाई ने झपट कर माँ को छीना
"ऐसे कैसे लोग क्या कहेंगे"
भौजाई नागिन-सी तड़पी
" सब जायजाद के चोंचले हैं जी
किसके घर लडाई नहीं होती? "
भाई ने धमकाया " माँ अगर गई तो
मेरी लाश पर से "
माँ ने दौड़ कर भाई के मुँह पर
हाथ रख दिया प्यार से
"मैं कहीं नहीं जाऊँगी मेरे लाल"
बहन को सुनाई दिया
तेरी गालियों पर बेटियों की सौ मनुहारें कुर्बान बेटा।
घर फोड़नी होती हैं बेटियाँ
क्या ज़रूरत अपने घर में इतना
स्वभिमान सिखाने की।
जाते हुए गले लगी माँ ने कहा
"तू बेटा होती तो दरिद्र कट जाता मेरा"
"कट तो अब भी जाए माँ"
पर कहने से फ़ायदा नहीं
सोच
जल्दी से कदम बढ़ा दिया
बाहर की ओर बेटी ने।