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घास / प्रेमशंकर शुक्ल
Kavita Kosh से
घास जो धरती पर
धीरज की अत्यन्त सुंदर उपमा है
गंध और हरियाली बन फैली है
हमारी आवाज़ में
ख़ुशी के गीत
गुनगुनाती होगी धरती
और फूट पड़ती होगी घास
कविता आवाज़ की विधा है
और घास विस्तार की
कठिन समय में
जूझने की ताक़त लिए
उजाड़ के विरुद्ध जब तक फैली है घास
आमंत्रण है दसों दिशाओं से
पूरम्पूर जीवन के लिए।