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घास के पूले / लीलाधर जगूड़ी

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अचरज हुआ घास के पूलों को चलता देख कर

पूले पर पूले

छह फुट से भी ऊँचे थे पुलिंदों के सिर

मजाल कि कोई उन्हें छू ले

इस तरह ऊँचे पुलिंदों की कतारें जा रही थीं

गाँवों की ओर

जैसे घास की मीनारें खुद चल कर जा रही हों

जानवरों की नाँद तक

औरतों के दो पैर लेकर चल रहे हैं घास के धड़

घास के सिर

न कमर। न गर्दन। न पिछवाड़ा

इतने थिर - सिर छह फुट्टे गट्ठरों के

पार कर रहे हैं पहाड़ की धार

कभी उन दो पैरोंवाली पीठों पर

लकड़ी के बोझ आ जाते कभी पराल के भारे

कभी घराट ले जाए जाते गेहूँ के बोरे

घिसे हुए तलवों और घिसी हुई मैली एड़ियों सहित

दो पैर स्त्री के दिख जाते हैं बार-बार

पुराने जूतों जैसे घिसे इन पैरों के सिर पर

जेठ की दोपहरियों में

कभी पानी भरे पीतल के बंट्टे चढ़ जाते हैं

घास के भारे । लकड़ी के गट्ठर

सिर पर बंट्टा और जिंदगी का बंट्टाढार

बासठ वर्षों से लगातार