भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
घूमै है दुनिया / नीरज दइया
Kavita Kosh से
आओ दो घड़ी बिसांई लेवां
लेवां आणंद ताजी पून रो
घूमां ऊभराणा थोड़ी’क ताळ
लीली-लीली दूब माथै।
होय परा आडा
निरखां ओ आभो
सूता-सूता
लीली दूब माथै
विचरां बणता-बिगड़ता चितराम।
खिंडा परी
ओळूं-गांठड़ी
काढ़ा- अंवेर्योड़ा सुख-सुपनां
दुनियादारी सूं होय परा मुगत
करां घड़ी-दोय घड़ी बंतळ
बिंयां घूमण नै तो
चकरी-बम्म घूमै है
आ दुनिया सगळी ई’ज
आपां नै घूमावण खातर।