भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

घोंसला / लालसिंह दिल / सत्यपाल सहगल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जैसे-जैसे मन्दिर-मस्जिद
मसला उलझता जाता
उसे अपने घोंसले की फ़िक्र
झिंझोड़ डालती।

अयोध्या दूर थी
वह पुजारी भी नहीं था।
दो एकड़ मिला ज़मीन का टुकड़ा
पल-पल उसकी जान की क़ीमत बनता
आस-पड़ोस के खेतों वाले रास्ता न देते।
जिसके मुरब्बे से यह काटा गया था
वह भी मन्दिर-मस्जिद मसले की तरह
गरम हुआ।

डरकर उसने रातों-रात
आधी-अधूरी फ़सल काटी
उठा लाया उसे
और मण्डी में चला गया।

मूल पंजाबी से अनुवाद : सत्यपाल सहगल