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चंचला / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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हे विराट नदी,
अदृश्य अशब्द तेरी वारि(-धारा)
बह रही है निरवधि विराम-विहीन
अविरल-अविच्छिन्न (अजस्र).
स्पंदन से सिहरता शून्य तेरी रूद्र कायाहीन(गति के)वेग से(फिर)
वस्तुहीन प्रवाह के कहा-कहा प्रचंडा घाट
उठते वस्तु रुपि फेन के बहु पुंज,
(नव) आलोक की तीव्रछटा विच्छुरित हो उठती (कि)
(चित्र-विचित्र)वर्ण स्रोत में
उठ-उठ(निरंतर)धावमान (विशाल)तिमिर व्यूह से,
(इस चंड गति से)उठे घूर्ण चक्र से
प्रत्येक स्त्र में--पतित घूर्णित
भटकते-मरते अनेको सूर्य-शशि नक्षत्र
बुद्बुद कि तरह(दिन-रात).