चंद्रकटार / दिनेश कुमार शुक्ल
लेकर चंद्रकटार सखी तुम धीरे-धीरे
उठीं तीज की रात गगन में धीरे-धीरे
भरकर तुम विस्तार पसरती जैसे सृष्टि अपार
तुम्हारा बिखर गया मणिहार
दमकते तारे कई हजार
गगन में धीरे-धीरे
तुम आकाश की गंग उठाती चलतीं मंद तरंग
और फिर झरतीं नभ के पार कहीं तुम धीरे-धीरे
तुम्हारे खंजन गंजन नैन
ले गये नरगिस का सुख चैन
तुम्हारी मंथर-मंथर चाल
गगन में जैसे मेघ मराल
उड़ रहे धीरे-धीरे
तुम्हारी मंद-मंद मुस्कान
बधिक की आधी खिंची कमान
भरा जिसमें अनुराग विराग
खेलती जिसमें ठंडी आग
दहकती धीरे-धीरे
उठा मन्द सा ज्वार सखी फिर धीरे-धीरे
उतरीं सिंधु मंझार सखी तुम धीरे-धीरे
जल की घेर दिवार सखी फिर धीरे-धीरे
करना जल में प्यार मुझे तुम धीरे-धीरे
जल में जल की खींच यवनिका धीरे-धीरे
कर देना मिस्मार सभी कुछ धीरे-धीरे
बिना बात की बात हमारी बीत गई है रात
भई भोर भिनसार, खुला दिन धीरे-धीरे