चक्की / शर्मिष्ठा पाण्डेय
पत्थर के जांतें (चक्की) पर
कुछ पीसती रहती थी दादी
मैंने पूछा क्या पीसती हो दादी ?
दादी बोली उमर के दो पाटों बीच
पीसती हूँ वक्त
बारीक करती हूँ
ताकि आसानी से काट सकूँ दांतों तले
वक्त का खुरदुरापन कटता नहीं
गढ़ी लकड़ी के मोटे कुंदे वाले
'ढेंके' पर कुछ चलाती रहती थी बुआ
मैंने पूछा क्या कूटती रहती हो बुआ?
बुआ बोली लगातार कूटती हूँ संबंधों के धान
ताकि, बिना तोड़े संभाल कर
अलग कर सकूँ
चुभती भूसी से
खरे उजले नातों के चावल
चाचों से पूछा क्या करते हो काका?
काका बोले ज़िन्दगी की
पथरीली माटी जोत कर बोता हूँ
तेरे कठोर जवाबों के सवाली बीज
जब तू बड़ी हो जइयो काट लीहो सारे सवाल
फिर एक एक कर मिलान कर लीहो
अपने जवाबों के संग मिलते सवाल
लिख डलिहो अपने अनुभव की बही में
हाँ !सूद चढ़ाते रहियो ज़िन्दगी पर
तेरे क़र्ज़ से जब तक दबी रहेगी
ज़िन्दगी
ना राज़ करेगी तू समझी !!
समझ गयी काका