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चटनी / जयप्रकाश मानस

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ग़रीब का मसाला,
पत्थर की सिल पर उगता है।

हरी मिर्च की चुभन
लाल मिर्च की आग
नमक का पसीना
और हरे आम का खट्टापन—
सब मिलकर बोलते हैं
हम हैं तेरे अपने
तेरे हिस्से की रोटी को पूरा करते हैं।

सिल-लोढ़ा चुपचाप देखता है
हाथों की मेहनत को
जो पसीने से चिकना हो गया है।

धनिया की पत्ती हँसती है
नारियल का गोरा मुँह
ग़रीब की थाली में
चाँद बनकर उतरता है।

चटनी ग़़रीब का गीत है
जो सूखी रोटी को
हरा जंगल बना देती है।

वह खाता है
सूखी रोटी में
नदिया की लहरें उमड़ती हैं
वह मुस्काता है ,
जैसे डोंगियों की रंगीन पालें झिलमिलाती हैं।

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