चतुर्मास / दिनेश कुमार शुक्ल
इतनी ऊँची इस फुनगी तक
इतनी मिठास कैसे आयी
कैसे आ पायी यह सुगन्ध
कुछ हींग और कुछ चन्दन-सी
आँधी-तूफ़ानों से बचकर
इस एक अकेली अॅंबिया में
पक रहा ग्रीष्म का प्रौढ़ राग
कुछ-कुछ विषाद
कुछ-कुछ विरक्ति
कुछ भग्नाशा....
मॅंझधार पार कर आयी है
दलदल में धॅंस कर आयी है
तट की कठोरता से होकर
मिट्टी के पोर-पोर भरती
जड़ से होकर शाखाओं तक
टहनी-टहनी पत्ते-पत्ते
यह बौर-बौर बौराई है
पानी की आभा आयी है
अमरस बनकर झलमला रही
स्वर्णिम अमृत की एक बूँद....
आमों का आया चतुर्मास
संन्यासी और दलालु गृहस्थों
की कुटियों-चौपालों
में
भभक रहा है चतुर्मास
इतनी सुगन्ध इतनी मिठास!
आमों का वैभव दो दिन का
रस-रसना का यह चिद्विलास!
है रात अमावस की तो भी
पकते
आमों में
उतर रही है
सान्द्र
चन्द्र
मा की उजास !