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चप्पलें / हेमन्त कुकरेती
Kavita Kosh से
रूठी हुई चप्पलें पैरों में चुभती हैं
और अच्छे-भले लगते आदमी की तरह
एक दिन अचानक टूट जाती हैं
चप्पलों के निश्चित इलाके़ में
नंगे पैर जाना होता है
उनकी आदिम बेडौलता को ढकते हुए
चप्पलें उन पर हावी हो जाती हैं
हमारे तलुवे कठोर होते हुए चटकने लगते हैं
चप्पलें उनसे ऊबी हुई घिसती रहती हैं
चप्पलें कभी बेकार नहीं मरतीं
इतनी शानदार होती है उनकी मृत्यु कि
हमारी गर्दन तक झुक जाती है
पैर जानते हैं कि
हर बार उनके हिस्से की ठोकर
झेलनेवाली चप्पलें
उन्हें बचाने के लिए ही
टूट गयी हैं