भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चलते-चलते / रामदरश मिश्र
Kavita Kosh से
वह चलते-चलते प्रायः लुढ़क जाता है
नीचे की किसी विषमता की ठोकर खाकर
और चोट लग जाती है यहाँ-वहाँ
पास खड़ा कोई समझदार व्यक्ति
सुझाव दे उठता है-
‘देखकर चला करो’
वह मन ही मन कहता है-
देखता तो हूँ
किन्तु पाँव ज़मीन पर होते हैं
और आँखें सामने के आकाश पर
नीचे तो न जाने कितनी विषमताएँ बिछी हैं
उन्हीं में उलझा रह जाऊँ
तो उस यात्रा का क्या होगा
जो इन विषमताओं के समाधान के लिए होती है
और सामने के आकाश को देखते चलना
ज़रूरी समझती है
-19.3.2015