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चलो, मेला चलें / जयप्रकाश त्रिपाठी
Kavita Kosh से
शब्द हैरान, परेशान चलो, मेला चलें।
सजी है दिल्ली में दुकान, चलो, मेला चलें।
नहीं जुटा किराया, जोड़ता, जुटाता रहा,
जेब में कैसे पड़े जान, चलो, मेला चलें।
अब कहाँ ख़ून-पसीने की बात होती है,
वाह रे मेरा हिन्दुस्तान, चलो, मेला चलें।
मेरे छप्पर में टँगी लालटेन छोटी-सी,
वहाँ बड़े-बड़े मकान, चलो, मेला चलें।
हर तरफ भीड़ है, भरमार है किताबों की,
ठाट से बिक रहा है ज्ञान, चलो, मेला चलें।
बिक रहे, जिनकी खरीदारी के तमाशे हैं
सजा-धजा प्रगति मैदान, चलो, मेला चलें।
ढोल पीटें कि उसने क्या गजब का लिक्खा है,
फूँक मारें, भरें उड़ान, चलो, मेला चलें।
कबाड़ भी है, बेहिसाब है अगड़म-बगड़म
नाचे, गाएँ, तोड़ें तान, चलो, मेला चलें।