चलो राज़ ढूँढें / भावना जितेन्द्र ठाकर
सितारों से सजे स्याह आसमान के नीले आँचल में,
खिलखाती निहारिका को गवाह रखते आ बैठे गिरजाघर की गोद में।
गुलमोहर की शाख पर मैं झूला बाँधू स्नेह का,
तू सर रखकर सो जा मेरी गोश में,
माशूक मेरे हर घर से उठते शोर में अपनी हँसी मल दे।
रात की निरवता क्यूँ कहती है इतनी सारी कहानियाँ,
जितनी तुम्हारी भूरी बादामी आँखों में छिपी है शैतानियाँ।
फ़ितूर चढ़ा है आज तुम्हारी पीठ को कैनवास बनाकर धरती और आसमान की परतों से हर रंग चुराकर गढ़नी है
मुझे अनकही, अनदेखी, अनसुनी कहानियाँ।
तुम्हारे सुनहरे गेसूओं की हर लट में सौदर्य के असंख्य राज़ छुपे है,
वैसे ही सौर-मंडल की भुजाओं में प्रकृति के प्रतिबिम्ब तलाशने है मुझे।
दिल को लगता है दुन्यवी हर शैय में भरी है तिलिस्मी रानाइयाँ,
साथ दो मेरा हल्का-सा चलो मिलकर खोजें कुछ रहस्यमय ऋतुओं के रेशमी धागों का शामियाना।
धरती और आसमान के बीच कहीं तो ऐसा कोई सेतु होगा जिस पर चलकर हम वहाँ तक पहुँच पाएँ,
जहाँ खुलता हो गहरे रंगों की परछाई का राज़ कोई ख़ुफ़ियाना।