भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चाँद और बादल / सविता सिंह
Kavita Kosh से
बादलों से उबरता है चाँद
स्वप्न जैसे नींद से
हवा में डोलती है हौले-हौले घास
और लो निकल आया पूरा का पूरा चाँद
ठंडी रात और उसके सफ़ेद पखेरू
कब से सहते आए हैं
सौंदर्य के ऐसे अतिक्रमण
मूक अवाक खड़ी नदी तट पर मैं
ताकती हूँ आसमान
हौले से लगती है किनारे एक नाव
किसको जाना है अभी कहीं और मगर...