चांदनी रात और रेगिस्तान / अश्वनी शर्मा
चांदनी रात में
रेगिस्तान खोलता है अपने राज
उन्नत वक्ष से टीले एक के बाद एक
भिन्न रूपाकारों में
मांसल गोलाइयों से
अनावृत पसरे हैं रति-श्रम से थके
या बेसुध सुरापान कर
या अम्मल डकार कर
या आत्म केन्द्रित रूप गर्विता से
सम्मोहक गहराइयां
विवश करती हैं
मुंह छुपा इस मांसल सौन्दर्य को
छूकर महसूस करने को
ये अप्रतिम, अनंत
अनगढ़, आदिम सौन्दर्य-राशि
फैली है मूक आमंत्रण-सी
सभी दिशाओं में
आकंठ उब-डूब करती हुई
चाँद भी देखता है
ठगा-सा
वैसे ही जैसे
कभी रह गया होगा
ठगा सा
गौतम-पत्नी अहिल्या को देखकर
शापित अहिल्या की रूप-राशि का कोई हिस्सा
प्रस्तर न बन कर
बन गया था यह रेत-राशि
चाँद आज भी
सम्मोहित देखता रहता है
जड़, निः शब्द
गौतम के शाप के बावजूद
यह अप्रतिम अनपढ़
आदिम
सौंदर्य-विस्तार
ऐन्द्रजालिक
सम्मोहक भ्रमजाल सा
पसरा रहेगा यूं ही
लुभाता रहेगा
बिखरे पारे सा
मोहेगा
पर हाथ नहीं आयेगा।