भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चाहता तो मन यही है / अमरेन्द्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चाहता तो मन यही है,
बोल दूँ, सब कुछ सही है ।

हित-अहित को देख कर ही
सब बनाते यम-नियम को,
जो कभी चिढ़ते अधम से
धम वही कहते अधम को;
कल्प कोई भी रहा हो
सत्य-द्वापर याकि त्रोता,
कौन-सा युग ही बचा है
पाप जब न था विजेता!
कुछ किताबों में भले हो
और बाकी अनकही है ।

मैं नहीं अपवाद जग में
जो कहा मन ने, किया वह,
तीर का छुटना अवश था
तन गई थी जब ज्या वह;
क्या कहूँ मैं, क्या कहोगे
यह नहीं मुझको पता है,
तौल कर देखो तुम्ही अब
वह यथा या अन्यथा है।
कुछ नहीं मैंने छिपाया
है खुला खाता-बही है ।