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चाह रहा हूँ / भरत प्रसाद
Kavita Kosh से
सौ-सौ चेहरे मेरे मुँह पर
सौ-सौ क़ातिल मेरी आँखें,
साँस-साँस में मेरे भीतर,
सौ-सौ विष का ज्वार उमड़ता ।
ख़ुद से ख़ुद की ढोल पीटता
ख़ुद से ख़ुद की पीठ ठोंकता,
ख़ुद ही अपनी ठकुरसुहाती
चित भी मेरी, पट भी मेरी ।
रोएँ जितने ख़ूनी काँटे
मन में प्रतिदिन पनप रहे हैं,
विषधर बुद्धि कुण्डली मारे
पसर रही है खाली सिर में
चाह रहा हूँ, ख़ुद को काटूँ
ख़ुद को मोड़ूँ, ख़ुद को तोड़ूँ,
ख़ुद ही ख़ुद में आग लगा दूँ
ख़ुद को ख़ुद से दूर भगा दूँ ।
चाह रहा हूँ ख़ुद को मारूँ
ख़ुद को पीटूँ, ख़ुद को जीतूँ,
नोंच-नाच लूँ अपना चेहरा,
ख़ुद से खुली बगावत कर दूँ ।।