चित्तौर-आगमन-खंड / मलिक मोहम्मद जायसी
मुखपृष्ठ: पद्मावत / मलिक मोहम्मद जायसी
चितउर आइ नियर भा राजा । बहुरा जीति, इंद्र अस गाजा ॥
बाजन बाजहिं, होइ अँदोरा । आवहिं बहल हस्ति औ घोरा ॥
पदमावति चमडोल बईठी । पुनि गइ उलटि सरग सौं दीठी ॥
यह मन ऐंठा रहै न सूझा । बिपति न सँवरे संपति-अरुझा ॥
सहस बरिस दुख सहै जो कोई । घरी एक सुख बिसरै सोई ॥
जोगी इहै जानि मन मारा । तौंहुँ न यह मन मरै अपारा ॥
रहा न बाँधा बाँधा जेही । तेलिया मारि डार पुनि तेही ॥
मुहमद यह मन अमर है, केहुँ न मारा जाइ ॥
ज्ञान मिलै जौ एहि घटै, घटतै घटत बिलाइ ॥1॥
नागमती कहँ अगम जनावा । गई तपनि बरषा जनु आवा ॥
रही जो मुइ नागिनि जसि तुचा । जिउ पाएँ तन कै भइ सुचा ॥
सब दुख जस केंचुरि गा छूटी । होइ निसरी जनु बीरबहूटी ॥
जसि भुइँ दहि असाढ पलुहाई । परहिं बूँद औ सोंधि बसाई ॥
ओहि भाँति पलुही सुख-बारी । उठी करिल नइ कोंप सँवारी ॥
हुलसि गंग जिमि बाढिहि लेई । जोबन लाग हिलोरैं देई ॥
काम, धनुक सर लेइ भइ ठाढी । भागेउ बिरह रहा जो डाढी ॥
पूछहिं सखी सहेलरी, हिरदय देखि अनंद ।
आजु बदन तोर निरमल, अहैं उवा जस चंद ॥2॥
अब लगि रहा पवन, सखि ताता । आजु लाग मोहिं सीअर गाता ॥
महि हुलसै जस पावस-छाहाँ । तस उपना हुलास मन माहाँ ॥
दसवँ दावँ कै गा जो दसहरा । पलटा सोइ नाव लेइ महरा ॥
अब जोबन गंगा होइ बाढा । औटन कठिन मारि सब काढा ॥
हरियर सब देखौं संसारा । नए चार जनु भा अवतारा ॥
भागेउ बिरह करत जो दाहू । भा मुख चंद, छूटि गा राहू ॥
पलुहे नैन, बाँह हुलसाहीं । कोउ हितु आवै जाहि मिलाहीं ॥
कहतहि बात सखिन्ह सौं, ततखन आबा भाँट ।
राजा आइ निअर भा, मंदिर बिछावहु पाट ॥3॥
सुनि तेहि खन राजा कर नाऊँ । भा हुलास सब ठाँवहिं ठाऊँ ॥
पलटा जनु बरषा-ऋतु राजा । जस असाढ आवै दर साजा ॥
देखि सो छत्र भई जग छाहाँ । हस्ति-मेघ ओनए जग माहाँ ॥
सेन पूरि आई घन घोरा । रहस-चाव बरसै चहुँ ओरा ॥
धरति सरग अव होइ मेरावा । भरीं सरित औ ताल तलावा ॥
उठी लहकि महि सुनतहि नामा । ठावहिं ठावँ दूब अस जामा ॥
दादुर मोर कोकिला बोले । हुत जो अलोप जीभ सब खोले ॥
होइ असवार जो प्रथमै मिलै चले सब भाइ ।
नदी अठारह गंडा मिलीं समुद कह जाइ ॥4॥
बाजत गाजत राजा आवा ।नगर चहूँ दिसि बाज बधावा ॥
बिहँसि आइ माता सौं मिला । राम जाइ भेंटी कौसिला ॥
साजै मंदिर बंदनवारा । होइ लाग बहु मंगलचारा ॥
पदमावति कर आव बेवानू । नागमती जिउ महँ भा आनू ॥
जनहुँ छाँह महँ धूप देखाई । तैसइ झार लागि जौ आई ॥
सही न जाइ सवति कै झारा । दुसरे मंदिर दीन्ह उतारा ॥
भई उहाँ चहुँ खंड बखानी । रतनसेन पदमावति आनी ॥
पुहुप गंध संसार महँ, रूप बखानि न जाइ ।
हेम सेत जनु उघरि गा, जगत पात फहराइ ॥5॥
बैठ सिंघासन, लोग जोहारा । निधनी निरगुन दरब बोहारा ॥
अगनित दान निछावरि कीन्हा । मँगतन्ह दान बहुत कै दीन्हा ॥
लेइ के हस्ति महाउत मिले । तुलसी लेइ उपरोहित चले ॥
बेटा भाइ कुँवर जत आवहिं । हँसि हँसि राजा कंठ लगावहिं ॥
नेगी गए, मिले अरकाना । पँवरहिं बाजै घहरि निसाना ॥
मिले कुँवर, कापर पहिराए । देइ दरब तिन्ह घरहिं पठाए ॥
सब कै दसा फिरी पुनि दुनी । दान-डाँग सबही जग सुनी ॥
बाजैं पाँच सबद निति, सिद्धि बखानहिं भाँट ।
छतिस कूरि, षट दरसन, आइ जुरे ओहि पाट ॥6॥
सब दिन राजा दान दिआवा । भइ निसि, नागमती पहँ आवा ॥
नागमती मुख फेरि बईठी । सौंह न करै पुरुष सौं दीठी ॥
ग्रीषम जरत छाँडि जो जाइ । सो मुख कौन देखावै आई ?॥
जबहिं जरै परबत बन लागै । उठी झार, पंखी उडि भागे ॥
जब साखा देकै औ छाहाँ । को नहिं रहसि पसारै बाहाँ ॥
को नहिं हरषि बैठ तेहि डारा । को नहिं करै केलि कुरिहारा ?॥
तू जोगी होइगा बैरागी । हौं जरि छार भएउँ तोहि लागी ॥
काह हँसौ तुम मोसौं, किएउ ओर सौं नह ।
तुम्ह मुख चमकै बीजुरी, मोहिं मुख बरिसै मेह ॥7॥
नागमति तू पहिलि बियाही । कठिन प्रीति दाहै जस दाही ॥
बहुतै दिनन आव जो पीऊ । धनि न मिलै धनि पाहन जीऊ ॥
पाहन लोह पोढ जग दोऊ । तेऊ मिलहिं जौ होइ; बिछोऊ ।
भलेहि सेत गंगाजल दीठा । जमुन जो साम, नीर अति मीठा ॥
काह भएउ तन दिन दस दहा । जौ बरषा सिर ऊपर अहा ॥
कोइ केहु पास आस कै हेरा । धनि ओहि दरस-निरास न फेरा ॥
कंठ लाइ कै नारि मनाई । जरी जो बेलि सींचि पलुहाई ॥
सबै पंखि मिलि आइ जोहारे, लौटि उहै भइ भीर ॥
जौ भा मेर भएउ रँग राता । नागमती हँसि पूछी बाता ॥8॥
कहहु, कंत! ओहि देस लोभाने । कस धनि मिली, भोग कस माने ॥
जौ पदमावति सुठि होइ लोनी । मोरे रूप की सरवरि होनी ?॥
जहाँ राधिका गोपिन्ह माहाँ । चंद्रावलि सरि पूज न छाहाँ ॥
भँवर-पुरुष अस रहै न राखा । तजै दाख, महुआ-सर चाखा ॥
तजि नागेसर फूल सोहावा कँवल बिसैंधहिं सौं मन लावा ॥
जौ अन्हवाइ भरै अरगजा । तौंहुँ बिसायँध वह नहिं तजा ॥
काह कहौं हौं तोसौं, किछु न हिये तोहि भाव ।
इहाँ भात मुख मोसौं, उहाँ जीउ ओहि ठाँव ॥9॥
कहि दुख कथा जौ रैनि बिहानी । भएउ भोर जहँ पदमिनि रानी ॥
भानु देख ससि-बदन मलीना । कँवल-नैन राते, तनु खीना ॥
रेनि नखत गनि कीन्ह बिहानू । बिकल भई देखा जब भानू ॥
सूर हँसै, ससि रोइ डफारा । टूट आँसु जनु नखतन्ह मारा ॥
रहै न राखी होइ निसाँसी । तहँवा जाहु जहाँ निसि बासी ॥
हौं कै नेह कुआँ महँ मेली । सींचै लागि झुरानी बेली ॥
नैन रहे होइ रहँट क घरी । भरी ते ढारी, छूँछी भरी ॥
सुभर सरोवर हंस चल, घटतहि गए बिछोइ ।
कंबल न प्रीतम परिहरै, सूखि पंक बरू होइ ॥10॥
पदमावति तुइँ जीउ पराना । जिउ तें जगत पियार न आना ॥
तुइ जिमि कँवल बसी हिय माहाँ । हौं होइ अलि बेधा तोहि पाहाँ ॥
मालति-कली भँवर जौ पावा । सो तजि आन फूल कित भावा ? ॥
मैं हौं सिंघल कै पदमिनी । सरि न पूज जंबू-नगिनी ॥
हौं सुगंध निरमल उजियारी । वह बिष-भरी डेरावनि कारी ॥
मोरी बास भँवर सँग लागहिं । ओहि देखत मानुष डरि भागहिं ॥
हौं पुरुषन्ह कै चितवन दीठी । जेहिके जिउ अस अहौं पईठी ॥
ऊँचे ठाँव जो बैठे , करै न नीचहि संग ।
जहँ सो नागिनि हिरकै करिया करै सो अंग ॥11॥
पलुही नागमती कै बारी । सोने फूल फूलि फुलवारी ॥
जावत पंखि रहे सब दहे । सबै पंखि बोलत गहगहे ॥
सारिउँ सुवा महरि कोकिला । रहसत आइ पपीहा मिला ॥
हारिल सबद, महोख सोहावा । काग कुराहर करि सुख पावा ॥
भोग बिलास कीन्ह कै फेरा । बिहँसहिं, रहसहिं, करहिं बसेरा ॥
नाचहिं पंडुक मोर परेवा । बिफल न जाइ काहुकै सेवा ॥
होइ उजियार सूर जस तपै । खूसट मुख न देखावै छपै ॥
संग सहेली नागमति, आपनि बारी माहँ ।
फूल चुनहिं, फल तूरहिं, रहसि कूदि सुख-छाँह ॥12॥
(1) अँदोरा = अंदोर , हलचल, शोर (आंदोल)। चंडोल =पालकी । सरग सौं ईश्वर से । तेलिया = सींगिया विष । तेलिया....तेही = चाहे उसे तेलिया विष से न मारे । केहुँ = किसी प्रकार ।
(2) तुच = त्वचा, केंचली । सुचा = सूचना ,सुध,खबर । सोंधि बसाई = सुगंध से बस जाती है या सोंधी महकती है । करिल = कल्ला । कोंप = कोंपल ।
(3) ताता = गरम । दसवँ दावँ = दशम दशा, मरण । महरा = सरदार । औटन = ताप । नए चार = नए सिर से ।
(4) दर =दल । रहस-चाव = आनंद-उत्साह । लहकि उठी = लहलहा उठी । हुत =थे । अठारह गंडा नदी = अवध में जन साधारण के बीच यह प्रसिद्ध है कि समुद्र में अठारह गंडे (अर्थात् 72) नदियाँ मिलती हैं
(5) बेवान = विमान । जिउ महँ भा आनू = जी में कुछ और भाव हुआ । झार = लपट, ईर्ष्या, डाह । जौ =अब । उतारा । हेम सेत = सफेद पाला या बर्फ ।
(6) बहुत कै = बहुत सा । जत = जिससे । अरकाना = अरकाने दौलत, सरदार उमरा । दुनी = दुनिया में । डाँग = डंका । पाँच सबद = पंच शब्द , पाँच बाजे-तंत्री,ताल, झाँझ, नगाडा और तुरही । छतिस कूरि = छत्तीसों कुल के क्षत्रिय । षट दरसन = (लक्षण से) छः शास्त्रों के वक्ता ।
(7) दिआवा = दिलाया । कुरिहारा = कलरव , कोलाहल ।
(8) पोढ=दृढ, मजबूत, कडे । फरे सहस साखा होइ दारिउँ, दाख , जँभीर । फरे सहस...भीर = अर्थात् नागमती में फीर यौवन-श्री और रस आ गया और राजा के अंग अंग उससे मिले ।
(9) मेर = मेल, मिलाप । लोनी = सुंदर । नागसेर = अर्थात् नागमती । कँवल = अर्थात् पद्मावती । बिसैंधा = बिसायँध गंधवाला, मछली की सी गंधवाला । भाव = प्रेम भाव ।
(10) देख = देखा । भानू = सूर्य, रत्नसेन । डफारा = ढाढ मारती है । मारा = माला । कुआँ महँ मेली = मुझे तो कुएँ में डाल दिया, अर्थात् किनारे कर दिया । झुरान = सूखी । घरी = घडा । सुभर = भरा हुआ ।
(11) बेधा तोहि पाहाँ = तेरे पास उलझ गया हूँ । डेरावनि = डरावनी । हिरके = सटे । करिया = काला ।
(12) पलुही = पल्लवित हुई, पनपी । गहहे = आनन्द-पूर्वक । कुराहर = कोलाहल । जस = जैसे ही । खूसट = उल्लू । तूरहि = तोडती हैं ।