चीनी आत्माएँ / दिनेश्वर प्रसाद
बर्फ़ में दबी हुई
चीनी आत्माएँ
स्वप्न देखती हैं
अपने खेत-खलिहानों के
नदियों के, कल-कारख़ानों के
सोचती हैं —
सूरज की किरणें जब हमें मुक्त कर देंगी
हम लौट जाएँगी परिचित कोलाहल में...
ली-शू सितम्बर में जन्मा था;
कितना बढ़ गया होगा ?...
आओ-शी मेरे हिमालय प्रस्थान पर
बहुत-बहुत रोई थी
और बड़े आग्रह से बोली थी —
विदा, लू-चुन, विदा
लौट जल्दी आना
मार्च में हम अपनी गृहस्थी बसाएँगे...
वाड्.-लुड्. को आता है याद वह कोलखोज़
जिसमें उसने
अपने तवारिशों के साथ
मिहनत के मोती उगाए थे...
तिड्.-तियेन कवि है
सोचता है —
वसन्त की घाटियों की हवा
पतझड़ के पीले पत्र
उड़ा ले गई होगी
बाँसवन हरा हो गया होगा
मई है, चेरी के फूल खिल आए होंगे
मेरे सूने आँगन में...
बर्फ़ में दबी हुई
चीनी आत्माएँ
स्वप्न देखती हैं —
सूरज का ताप हमें शीघ्र मुक्त कर देगा
लौट जाएँगी हम अपने ठिकानों पर
खेत-खलिहानों पर
किन्तु-किन्तु
हिमगिरि के उत्तर में
युद्ध का सर्प-दैत्य बैठा है
लौटने वह देगा उन्हें ?
उन्हें आशंका है
किसी हिम्मत सिंह की
गोलियों का उनको फिर
शिकार होना होगा ।