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चूक मेरी ही थी / ब्रज श्रीवास्तव

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मेरे अंदर सैर करने के लिए आए थे
अनेक विचार
मैं एक ही जगह रहा आज दिन भर
फिर भी किसी ने मुझे नियंत्रित किया
वह एक नहीं था
जिसने मुझे नहीं चलने दिया अपने अनुसार
एक राजनीति पहरे पर थी
मुझे स्थिर रखने के लिए
कुछ उपदेश बैठे थे सर पर आँखें लाल किए
कुछ मशवरे भी बैठे थे दरवाजे पर मेरे घर के

मेरी तरह ही ख़यालों में गुम थे कुछ और लोग भी
जिनका दिन इसी तरह गुजरा कि बस गुजरा

दिन गुजरा महामारी के मरीज़ की तरह
खाँसता हुआ और प्रार्थना करता हुआ
समय का अंश होते हुए भी
समय से अपने अस्तित्व की याचना करता हुआ

आँखों के सामने से गुजरे थे जो दृश्य
उनमें मुंह ढ़के हुए कुछ लोग थे
एक बाज़ार था, बेतरह बेख़बर भावनाओं से
एक नवजात वाहन था
कर्ज से अर्जित किया हुआ
कचरों के ढ़ेरों में कुछ गंदे मास्क भी पहुँच गए थे
कविता में अलबत्ता चाँद मौजूद था
और उस दृश्य को हटाया जा रहा था किसी के द्वारा
पहले की तरह गुजरे दिनों से
यह दिन इस तरह अलग तरह से गुजरा था

अवसाद का धूसर रंग था
न जाने किस-किस की चूक थी
कि यह दिन इस तरह से गुजरा।
मुमकिन है कहा जाय
चूक मेरी ही थी
दिन को अदिन करने की।