चूल्हा / कुमार कृष्ण
वह है
अनाज से शक्लें बनाने में माहिर
अनाज की बदलती नस्लों को
देखा है उसने सूँघकर करीब से
पहचानता है वह
ज़िन्दगी की गन्ध।
गर्म दीवारों पर प्रतिदिन उसके
जलता है मानचित्र
लोकतन्त्र का
फ्रेम से गिरकर
बाहर निकल आती
आजादी की उपेक्षित तस्वीर।
बहुत बार देखा है उसने देश को
रोटी की तरह रंग बदलते
बौनी दीवारों पर उसके
पकता है हर रोज
पूरा देश
देश :
जो नहीं कुछ और
रोटी के ठण्डे टुकड़ों की
एलबम के सिवा
राख में दबे
रोटी के जले हुए इतिहास को
जितनी बार भी मैंने की
लिखने की कोशिश
मैंने सोचा-
लिखना होगा
पहले मुझे उस तकलीफ़ को
जो होती है
और लगातार होती रहती है
अनाज को रोटी बनने में।
कविता के बारे में
मेरे एक मित्र ने
आकाश पर कविता लिखी
उसे हवा में उड़ा दिया।
दूसरे मित्र ने
नदी पर कविता लिखी
उसे कश्ती बनाकर
पानी में ठेल दिया।
तीसरे मित्र ने
जुलूस पर कविता लिखी
उसे पोस्टर बनाकर
दीवार पर चिपका दिया।
मैंने खेत पर कविता लिखकर
एक बड़ी गलती कर दी
लोग उसे बिजूका समझकर
पक्षियों को डराने की चीज़
समझ बैठे
मैं उनसे कैसे कहूँ यह बिजूका नहीं
आदमी और खेत के बीच तनी हुई
बैल की पीठ है
जिसे जितना पलोसते जाओ
वह और काँपती जाती है।