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छंद 103 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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किरीट सवैया
(वर्तमान गुप्ता नायिका-वर्णन)

ज्यौं दुरि देखि सदाँ बन मैं, गहि एक कौं एक भुजान तैं ठेलति।
त्यौं मनमोहन-संग सदाँ हीं हियौ हुती हौंहूँ हुलासन मेलति॥
मोहिँ न भावति ऐसी हँसी, ‘द्विजदेव’ सबै तुम नाँहक हेलति।
आज भयौ धौं नयौ कछु ख्याल, गुपाल सौं चोर-मिहीचनी खेलति॥

भावार्थ: कोई ‘वर्तमान गुप्ता नायिका’ कहती है कि जैसे इस वन में छिप-छिप के सखियाँ नित्य एक-दूसरी को हाथों से ठेला करती हैं वैसे ही मनमोहन के संग मैं भी कौतुकवश खेला करती थी, सो तुम सब मेरा अपमान कर क्यों हँसती हो, यह मुझे अच्छा नहीं लगता; क्योंकि आज गोपाल के संअ ‘अँखमुदौवल’ खेलने में कौन सी नई बात हास्यास्पद हुई है।