छंद 122 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
किरीट सवैया
(चपलता संचारी हाव-वर्णन)
ढोल-बजावती गावती गीत, मचावती धूँधूरि धूरि के धारन।
फैंटि फते की कसैं ‘द्विजदेव’ जू, चंचलता-बस अंचल-तारन॥
औचक हीँ बिजुरी-सी जुरी, दृग देखत मूँदि लिए दिखवारन।
दामिनि-सी घनस्यामहिँ भैंटि, गई गहि गोरी गुपाल के हारन॥
भावार्थ: ढोल बजाती, गाती, गुलाल उड़ा अंतरिक्ष को धुँधला करती, विजय कामना से अंचलरूपी परिकर से कटिबद्ध, चंचला संयुक्त, एकाएक व्रज-वनिताओं के समूह से निकल चंचला-सदृश घनयाम से मिल उनके मुक्ताहर को विजय-चिह्न के हेतु लेकर अपने यूथ में जा मिली। यह सब कार्य ऐसी चंचलता से किए कि देखनेवालों की आँखें चमक-दमक देखकर झपक गईं और वे कुछ भी न लख सके कि कब गई, कब आई और क्या कार्य किया। उक्त छंद में दामिनी की उपमा कवि ने तीन कारणों से दी है, प्रथम तो-घनश्याम शब्द में ‘अभिधामूलक व्यंग्य’ है। दूसरे घनश्याम-श्री कृष्णचंद्र और काले मेघ को कहते हैं तो बादल से बिजली का चमककर मिलना ठीक ही है, दूसरा कारण-दामिनी में चंचलता की हद है। तीसरा कारण यह है कि चंचला को देख आँखों का झप जाना सहज ही है।