छंद 141 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मनहरन घनाक्षरी
(मध्या अभिसारिका-वर्णन)
पाइलनि डारै कटि-किंकनी उतारै कहूँ हाथन तैं मारि भीर टारति मलिंद की।
भूषन-चमक तैं चमक लगै पाँइन मैं, ‘द्विजदेव’ आँखिन बचाइ अलि-बंृद की॥
भौंन तैं दमकि दामिनी-लौं दुरै दूजे भौंन, त्यागि गरवीली-गति गौरब-गयंद की।
या बिधि तैं जाति चली साँवरी उँमाहैं सखी! आज भई चाँहैं भाग उदित गुबिंद की॥
भावार्थ: वह कहीं अपने नूपुर और मेखला (शब्दायमान होने के भय से) उतारती, कभी हाथों से मुखारबिंद पर झुकी आती भ्रमर-भीर को निवारती; अपने ही आभूषणों की चमक को पैरों पर पड़ते देख सहचरियों की आँखें बचा पैरों को छूती है अर्थात् उन्हें उतार लेती है एवं एक भवन से निकलकर दूसरे भवन में गर्बीली गति को छोड़ बिजली सी चमककर छिप जाती हुई, इस प्रकार नायिका उत्साह से भरी चली जाती है, अतएव कृष्ण का भूरि भाग्योदय हुआ ही चाहता है।