छंद 149 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
जलहरन घनाक्षरी
(कलहांतरिता व मानिनी-नायिका-वर्णन)
भेद मुकता के जेते स्वाँति ही मैं होत तेते, रतनन हूँ कौ कहूँ भूलि हूँ न हेात भ्रम।
मौंती सौं न रतन, रतन हूँ न मौंती होत, एक के भए तैं कहूँ होत, दूसरे कौ क्रम॥
‘द्विजदेव’ की सौं ऐसी बनक-निकाई देखि, राम की दुहाई मन होत है निहाल मम।
कंज के उदर प्रगट्यौ है मुकुताहल सो, बाहर के आवत भयौ है इंद्रनील-सम॥
भावार्थ: एक सखी दूसरी सखी से किसी ‘कलहांतरिता’ का हाल कहती है कि हे सखी! स्वाति नक्षत्र के जल-बिंदु से उत्पन्न हुए मुक्ताओं के जितने भेद होते हैं वे ऐसे नहीं हैं कि उनमें दूसरे किन्हीं रत्नों की भांति हो सके और मुक्ताओं के उत्पन्न होने के स्थान व तद् द्वारा उनके भेद भी नियत हैं, सिवाय इनके मुक्ता का सा न कोई दूसरा रत्न बन सकता है और न किसी दूसरे रत्न से मुक्ता ही बनाया जाता है; किंतु मैंने एक अद्भुत दृश्य देखा कि ‘कमल-पुष्प’ के उदर में ‘मुक्ता’ उत्पन्न हुआ तथा बाहर आते-आते वह प्रगाढ़ नीलमणि (नीलम)-सा हो गया अर्थात् पति के मनाने पर न मानकर उसके चले जाने से पश्चात्ताप के कारण ‘कंज’ रूपी नेत्रों से ‘मुक्ता; सृदश आँसू भरे और बाहर आते-आते कज्जल मिश्रित हो जाने से इंद्र-नीलमणि के सदृश हो गए। यहाँ ‘रूपकातिशयोक्ति अलंकार’ है, जिसमें केवल ‘उपमान’ ही का वर्णन होता है।