छंद 181 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मनहरन घनाक्षरी
(नायिका की मदन-प्रति उक्ति-वर्णन)
भूले-भूले भैंर बन भाँवरैं-भरावैं कोक, बरबस ही तौ कियौ चाँहैं परबसु रे।
‘द्विजदेव’ तापर अलापैं ए कलापिन की, भरि-भरि दैंइ गोद नित अपजसु रे॥
ताहू पैं सुतेरे खन तीखन सँतापन तैं, नैकहूँ बचाव हात माइकैं न ससुरे।
तियन-निकारि भलैं पाँइन-पसारि अरे, बाबरे अनंग! अब तू ही ब्रज-बसु रे॥
भावार्थ: कोई विरहिणी नायिका अनंग से कहती है कि स्त्रियों को निकाल और पैरों को पसारकर हे विक्षिप्त (पागल) कामदेव! अब तू ही व्रज में बस, क्योंकि भूले-भूले भ्रवर वन में घूम रहे हैं और कोक (चक्रवाकी) हठात् हृदय को परवश किया चाहते हैं, तिसपर भी यह मयूरों का आलाप अंचल भर-भरकर अपयश दे रहा है, इतने पर भी तेरे तीक्ष्ण संताप से क्षणमात्र भी बचाव न तो ससुराल ही में होता है और न मायके (पीहर) में ही। प्रोषितपतिका स्त्रियों को निकाल और पैर पसारकर निर्द्वंद्व हो अब तू ही व्रज में बस, हम सब तो अब मरीं-अब मरीं।