छंद 201 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मनहरन घनाक्षरी
(विरह निवेदन-वर्णन)
डारैं कहूँ मथनि, बिसारैं कहूँ घी कौं भाँड़, बिकल बगारै कहूँ माँखन-मठा-मही।
भ्रमि-भ्रमि आवति चहूँघाँ तैं सु याही मग, प्रेम-प्य-पूरि के प्रबाहन मनौं बही॥
झुरसि गई धौं कहूँ काहू की बियोग-झार, बार-बार बिकल बिसूरति जहीं-तहीं।
एहो ब्रजराज! एक ग्वालिन कहूँ की आज, भोर ही तैं द्वार पैं पुकारति दही-दही॥
भावार्थ: दूती नायक से विरह का निवेदन करती है कि हे व्रजराज! आज कहीं से आई हुईएक ग्वालिन सवेरे (प्रातः) से ही द्वार पर ‘दही-दही’ पुकार रही है, दही-गोरस और जलने को कहते हैं। उसकी दशा यह है कि किसी ओर तो मथनी गिरी है और किसी ओर घृत का मटका भूल गई है। योंही बेसुध होकर कहीं पर माट्ठा और कहीं माखन गिरा दिया है और वह इधर-उधर से भटककर इसी मार्ग को आती है, मानो प्रेम-प्योनिधि के प्रवाह में बह रही है और जहाँ जहाँ बारंबार ऐसा स्मरण करती है, जिससे अनुमान होता है कि किसीकी वियोगाग्नि से झुलस गई है।