छंद 202 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मत्तगयंद सवैया
(उन्माद दशा-वर्णन)
मालती-कुंजनि त्यागि घने अलि-पुंज करीलन मैं सुख पैहैं।
चंद की चारु कलानि लखे तैं सबै अरबिंद अनंदित ह्वैहैं॥
देखि कैं ऐसी दसा ‘द्विजदेव’, जो आप ही सौं उपकार न ह्वैहैं।
ए बन-बैरी अहो करुना! करुनाकर कौ किन सोध बतैहैं॥
भावार्थ: प्रलाप दशा में कोई विरहिणी करुणा (वृक्ष विशेष) को प्राणप्यारे की खोज पूछने पर उतर न पा कहती है कि मालती के कुंज को त्याग भ्रमर को करील विटप की निष्पत्र झाड़ियों में क्या सुख प्राप्त हो सकता है? अर्थात् कदापि नहीं और निशाकर की रमणीय किराों से क्या पंकज प्रमुदित हो सकता है? अर्थात् नहीं; तो ऐसी विरह-दशा में जो आप ही से मेरा उपकार न होगा, क्योंकि आपका नाम ही करुणा है तो करुणाकर (नायकवर श्रीकृष्णचंद्र) की खोज क्या वन-बैरी बतावेंगे? कदापि नहीं, क्योंकि बैरी का अर्थ बदरी वृक्ष विशेष और-शत्रु है तो हे करुणावृक्ष! यदि करुणावन् व्यक्ति से परोपकार न होगा तो शत्रु से कब संभव है। (यह सवैया ‘काकु’ की रीति से कहा गया है।)