छंद 217 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मनहरन घनाक्षरी
(उद्धव-प्रति गोपी-वाक्य-वर्णन)
दिन ही मैं वाके कहूँ दाहै चंडबात तुम, दिवस-निसाहू चंद-बातन तचै रहे।
वाके मृगसीस एकआवै बीच ही मैं कहूँ, तुम मृगछालन के बसन बनै रहे॥
‘द्विजदेव’ ऊधौ जू! निहोरिऐ कहाँ लौं तुम्हें, पाइ प्रभुताई आपनी-सी तुम कै रहे।
हरि के पठाए जौ पैं आज ब्रज-बासिन कैं, अधिक निदाघहू सौं दाघ उर दै रहे॥
भावार्थ: अरुचिकर निर्गुण उपासना का उपदेश निरंतर देते हुए उद्धव से कोई व्रजबाला अनखाकर कहती है कि यदि अनुपयुक्त महान् पुरुषों के कृपापात्र होकर किसी कार्य संपादन में प्रवृत्त होते हैं तो वे अपना वैभव दिखाने के निमित्त दीनजनों को अत्यंत संतापित करते हैं, वैसे ही आप हमको ग्रीष्म से भी भीष्म (भीषण) होकर दुखदायी हो रहे हो। देखो, ग्रीष्म में चंडकर (सूर्य) की प्रचंड किरणों से तप्त बात (वायु) दिन ही दुखदायी होती है, पर आपकी बात (वार्त्ता) अहर्निश हमें संतापकारी है। फिर ग्रीष्मकाल के अंत में मृगशिरा (नक्षत्र व मृग का सिर) केवल एक बार आता है, किंतु आपके कथनोपकथन में मृग के शृंग-खुरसहित समस्त शरीर का चर्म अर्थात् मृगछाला का व्यवहार आदि से अंत तक बारंबार लक्षित होता है। (इस ‘बात’ शब्द में अभिधामूलक व्यंग्य है।)