छंद 232 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मनहरन घनाक्षरी
(प्रवत्स्यत्पतिका नायिका-वर्णन)
दौरि आई देहरी लौं देह री सँभारि बार कैउक निहारि आई मंदिर नए-नए।
‘द्विजदेव’ देखी हौं न कितहूँ छटान जऊ, चढ़िकैं अटान देखी दृगन चहूँ दए॥
साँची यह मानवी हमारी सौं हमारी कही, हौंनहारे अब दुख चाँहत सबै भए।
हाते जो इहाँई तौ न आवते कहारी आली! बीसबिसैं आज मेरे मोहन चले गए॥
भावार्थ: प्रवत्स्यत्पतिका नायिका अपनी किसी सखी से कहती है कि ड्योढ़ी तक दौड़-दौड़कर ज्यों-त्यों शरीर को सँभाले हुए मैं देख आई व कई बार नवीन मंदिरों को भी झाँक आई एवं अटारी पर चढ़के दूर-दूर तक आँख फैलाके देख आई पर कहीं भी उनकी झलक मुझे न देख पड़ी। यदि वे यहाँ होते तो क्या अब तक भी न दृष्टिगोचर होते? बीसों बिस्वा आज मेरे चित्तचोर, जैसा मैं सुनती थी, प्रवास को गए। हे सखि! अब निस्संदेह जो भाविक (होनेवाले) दुःख थे वे सब मुझे (अब) प्रत्यक्ष भोगने होंगे।