छंद 267 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मत्तगयंद सवैया
(मेहँदीयुक्त हाथ-वर्णन)
कर-कंकन साजि मयंक-मुखी, मुख कौंन के पंक न लावति है।
‘द्विजदेव’ हलाइ कैं पानि-बिभूषन, काकौ हियै न हलावति है॥
उपमान वे कौंन जिन्हैं सजि कैं अँगुरी, अँगुरी न दिखावति है।
मैंहदी निज हाथन लाइ कहौ, दुति कौंन की हाथ न लावति है॥
भावार्थ: भगवती भारती कहती हैं कि कंकण-विभूषित कलाई को दिखाकर कौन ऐसे उपमान हैं जिनके मुख में वह पंक (कीचड़ अर्थात् कालिख) नहीं लगा देती अर्थात् उन्हें अपमानित नहीं कर देती। इसी प्रकार हाथों में धारण किए हुए विभूषणों को हिलाकर कौन ऐसे उपमान हैं जिनके हृदय कंपित नहीं करती, यानी सबको डरा देती है एवं कौन ऐसे उपमान हैं जिन्हें अपनी अंगुलियों को सुसज्जित कर अंगुली नहीं दिखाती अर्थात् तरजनी दिखाकर निंदित नहीं करती और मेहँदी लगे हुए करतलों को दिखाकर किन उपमानों की कांति को अपने हस्तगत नहीं करती यानी अपना अनुचर नहीं बना लेती। ऐसी राधारानी के अंगों की उपमा ‘द्विजदेव जू’ महाराज आप कहाँ से लावेंगे।