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छंद 33 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
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दुर्मिला सवैया
(चिंता-वर्णन)
नख सौं भुँअ खोदत कोद चहूँ, अवलोकत हूँ नहिँ जानि परैं।
कर कौ अवलंब कपोलन दै, भुज के अवलंब कौं जानु धरैं॥
इहिँ भाँति सौं मौन ह्वै बैठौ घरीक, सु जाइ कैं काहू तमाल-तरैं।
तन और के जीव सजीव मनौं, मन मानहुँ और की देह धरैं॥
भावार्थ: चारों ओर देखने से भी कुछ नहीं मालूम होता था; अतएव एक हथेली के सहारे पर मुख रखे हुए और हाथ का सहारा जंघा पर दिए हुए एक ‘तामल-वृक्ष’ के नीचे जा बैठा; मानो तन और मन का कोई संबंध ही नहीं अर्थात् देहाध्यास जाता रहा।