छंद 4 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
रूप घनाक्षरी
(वसंतकालसूचक वस्तुओं के हेतु तर्क करने का वर्णन)
सुर ही के भार सूधे-सबद सु कीरन के, मंदिरन त्यागि करैं अनत कहूँ न गौंन।
‘द्विजदेव’ त्यौं हीं मधु-भारन अपारन सौं, नैंकु झुकि-झूँमि रहे मौंगरे-मरुअदौंन॥
खोलि इन नैननि निहारौं-तौं-निहारौं कहा, सुखमा अभूत छाइ रही प्रति भौंन-भौंन।
चाँदनी के भारन दिखात उनयौ सौ चंद, गंध ही के भारत बहत मंद-मंद पौंन॥
भावार्थ: अब किंचित् और भी विशेषता प्राकृतिक शोभा की मालूम होने लगी। किंतु विशेषता का कारण न मालूम होने से, कुछ तर्क-वितर्क चित्त में होने लगा। जैसे प्रतिमंदिर में पालित शुकों का शब्द गूँजता सुन कवि ने तर्क किया कि स्वर के भार से शब्द कदाचित् बाहर नहीं जा सकते और अपार मधु-भार से मोगरे-दौनेमरुए आदि की झाड़ियाँ उन्मत्त होकर कदाचित् झूम रही हैं। अतएव हे ईश्वर! इन स्वाभाविक नेत्रों से यह अभूत शोभा प्रतिभवन में कैसे देखी जाएगी। देखो, चंद्रिका के भार के प्रातः कालीन चंद्रबिंब पश्चिम दिशा में अस्तोन्मुख झुका हुआ दीखता है और सुगंधि के भार से वायु की मंद गति हो रही है।