छंद 56 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मनहरन घनाक्षरी
(भारती देवी का आशीर्वाद-वर्णन)
ठौर-ठौर निरखि मरंद सौ झरत रस, सुकबि-मलिंद वै भुलैहैं तन-मन तैं।
‘द्विजदेव’ की सौं या सिँगार की सलौनी-लता, बीस-बिसैं फैलिहै सुबुद्धि-उपबन मैं॥
प्रीति अति बाढ़िहै बिलोकि रस-रीति याकी, राधा अरु माधव की बरन-बरन पैं।
सुरुचि सुगंधित सरस कछु ह्वै हैं अति, तीनि हूँ भुवन याके तीनि हीं सुमन तैं॥
भावार्थ: यह ‘शृंगारलतिका’ नाम्नी वल्ली अवश्य सुबुद्धिवन में फैलेगी। जिसके स्थल-स्थल पर ‘मकरंद’ रूपी रस की निरंतर वर्षा देख भ्रमररूपी ‘कवि-कुल’ के तन-मन की सुधि जाती रहेगी, जिसके वर्ण-वर्ण पर श्री ‘राधा-माधव’ के रस-रीति की ‘माधुरी’ से प्रेम की प्रकर्ष वृद्धि होगी। सुतरां इसके तीन ही सुमनों से तीनों भुवन सुगंधिरूपी सुरुचि से अभिव्याप्त हो जाएँगे।