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छह मुक्तक / राजुल मेहरोत्रा

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छन्द बहुत होते छलछ्न्द नही होते हैँ
लोभोँ से किन्चित अनुबन्ध नही होते हैँ
कुन्ठा सन्त्रास घुटन पीर चली आओ तुम
कवि के हैँ द्वार कभी बन्द नही होते हैँ।



प्रीति कविता ज़िन्दगी की गर्विता रानी नही है
मूक भाषा प्रीति की, कुछ बोलती बानी नहीँ है
प्रीति कह सकते किसी उन्मुक्त सी उठती लहर को
बाँध लो जिसको तटोँ मे प्रीति वह पानी नही है।



धूल को अभ्यर्थना मिलती रहे
त्रास को मधु कल्पना मिलती रहे
हम स्वयँ को धन्य समझेगेँ अगर
आपकी शुभ सूचना मिलती रहे।



सूरदास आखोँ को कभी नही रोता
कबिरा का मनमौजी ज़हर नही बोता
कीचड़ मे खिल जायेँ लाख कमल लेकिन
कीचड़ मे तुलसी तो कभी नही होता।



टूट गये हैँ बटन शराफ़त के टाँक लो
कुछ कहने से पहले अपने दिल मे झाँक लो
ग़ालियाँ तो दे सकते हो तमाम शहीदों को
पहले उनके खून की कीमत तो आँक लो।



जो बदन की चोट से उभरे उसे कराह कहते हैँ
जो दिल की गहराइयोँ से निकले उसे आह कहते हैँ
दोस्तोँ मै आस्माँ हूँ ज़मी पे गिरता हूँ खुलेआम
जो परदे की ओट मे पनपे उसे गुनाह कहते हैँ ।