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छायावादी चतुष्टयी / जितेन्द्रकुमार सिंह ‘संजय’

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हीरक-हेम प्रभा चिर कान्ति
नवीन कला विकसी कविता की।
हिन्दी-सुकुंज हुआ वर उर्वर
वाणी की है गति ज्यों सरिता की।
सूघनी साहू का वंश प्रकाशित
कीर्ति प्रशस्त हुई है पिता की।
शंकर-से जयशंकर तेज
प्रसाद सुरश्मि मनो सविता की॥

काशी के 'कलाधर' की शाश्वती सुपत्रिका थी,
'इन्दु' बन शीर्ष चढ़ आभरण-सी लगी।
'महाराणा का महत्त्व' रच 'झरना' 'लहर' ,
'आँसू' से 'कामायनी' की भाव रचना पगी।
'चन्द्रगुप्त' भव्य 'जनमेजय का नागयज्ञ' ,
नृप 'चन्द्रगुप्त' की है 'ध्रुवस्वामिनी' सगी।
'तितली' 'इरावती' 'कंकाल' की कथा पवित्र,
पाकर 'प्रसाद' हिन्दी-दिव्य ज्योति है जगी॥

छायावादी कवियों में श्रेष्ठतम हैं 'प्रसाद' ,
उपमा के आधुनिक दिव्य 'कालिदास' हैं।
नव्य संस्करण अर्थगौरव में 'भारवि' के,
'दण्डी' -से लालित्य लिये रचना समास हैं।
गुणत्रय भूषिता-सी कविता को अंक लिये,
हिन्दी-दरबार में जो 'माघ' के विभास हैं।
महाकाव्य नाटक निबन्ध और कथाख्यान,
रच ख़ुद हो गये 'प्रसाद' इतिहास हैं॥

'नये पत्ते' 'बेला' 'अर्चना' की कविता का स्वर,
'सान्ध्य काकली' से मिल हुआ मतवाला है।
'अणिमा' 'कुकुरमुत्ता' 'अपरा' के शब्द शब्द,
गूँथी हुई काव्य की अनूठी मणिमाला है।
'शक्तिपूजा राम की' औ जूही की कली' अनन्य,
'बादल के राग' रची क्रान्ति-यज्ञ-ज्वाला है।
अप्रतिम मेधायुत महाप्राण महाकवि,
सूर्यकान्त को जगत कहता निराला है॥

नायिका 'अनामिका' से 'कुल्लीभाट' कह रहा,
'बिल्लेसु बकरिहा' की शोभना कहानी है।
'अलका' सुअलकों की 'चोटी की पकड़' देख,
जाने कितनों की बुद्धि भर रही पानी है।
तोड़ रही पत्थर जो श्याम तन वाली छवि,
कविता में आम आदमी की ज़िन्दगानी है।
छन्दमुक्त पथ के प्रवर्तक 'निराला' कवि,
महाप्राण सूर्यकान्त का न कोई सानी है॥

मानस की मंजुला धरा के मध्य काव्य-तरु,
जिसने लगाया वह देवि थीं ऋतम्भरा।
कान्यकुब्ज द्विजचन्द्र कौमुदी थीं अभिराम,
चली गयीं स्वर्गलोक छोड़ के वसुन्धरा।
बैसवारी-बँगला की मिली-जुली माधुरी में,
ढूँढ़ हिन्दी-कविता को हो गयीं चिदम्बरा।
'सूर्यकान्त' की प्रिया थीं, प्रेरणा 'निराला' की थीं,
माता 'रामकृष्ण' की 'सरोज' की 'मनोहरा' ॥

प्रकृति की समुज्ज्वला समग्र सुषमा के मध्य,
माता भारती का हंस मोती चुगने चला।
दुग्ध-सा धवल दिव्य चन्द्रिका का आभरण,
हिमगिरि अंक काव्य-देवदारु है फला।
'युगपथ' 'तारापथ' 'पल्लव' 'चदम्बरा' औ' ,
'वीणाग्रन्थि' 'गुंजन' से 'ग्राम्या' -स्वर निकला।
'स्वच्छन्द' 'युगवाणी' 'मधुज्वाल' औ समाधिता' ,
'किरणवीणा' रचती सुकवि पन्त की कला॥

दूसरा धरातल है 'कला और बूढ़ा चाँद' ,
उपन्यास की कसौटी खरा उतरा है 'हार' ।
उर की कड़ाही में उबल रहे भाव-तेल,
शब्द की बड़ी को छान काव्य का किया श्रृंगार।
'पल्लव' की भूमिका में काव्यभाषा का है चित्र,
युग-अनुरूप हर छन्द को दिया निखार।
कल्पना-मयूरी जब उड़ने लगी प्रसन्न,
तब पन्त प्रकृति के कवि हुए सुकुमार॥

विरह विदग्ध शब्द-माणिक्य को चुन चुन,
अनुभूति-ताप से पकाती महादेवी हैं।
ब्रह्म के रहस्य की सुधा का दिव्य स्वाद चख,
अनुपम रीति से रिझाती महादेवी हैं।
'श्रृंखला की कड़ियों' में गद्य का प्रसन्न रूप,
भाव-चलचित्र दिखलाती महादेवी हैं।
छायावादी काव्य की मनोहरा धरा के बीच,
राजनन्दिनी-सी गीत गाती महादेवी हैं॥

गीतकाव्य में पवित्र विरहानुभूति चित्र,
'सप्तपर्णा' 'सान्ध्यगीत' 'सन्धिनी' में हैं ललाम।
'दीपशिखा' प्रज्वलित 'नीरजा' की शब्दराशि,
कल्पना 'हिमालय' की मौलिक है अभिराम।
ज्ञानपीठ-आँगन थिरक रही 'यामा' -छवि,
मानो सुषमा का सिन्धु उमड़ा हो अविराम।
हिन्दी की सरस्वती महीयसी प्रसिद्ध अति,
आधुनिक मीरा महादेवी को है सुप्रणाम॥