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जज़्बों की गिरह खोल रही हो जैसे / जाँ निसार अख़्तर

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जज़्बों की गिरह खोल रही हो जैसे
अल्फ़ाज़ में रस घोल रही हो जैसे

अब शेर जो लिखता हूँ तो यूँ लगता है
तुम पास खड़ी बोल रही हो जैसे