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जब इंसान नहीं होंगे / शिव कुशवाहा

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गहरे अंधेरे अदृश्य पथों पर
असंख्य लोग चले जा रहे कतारबद्ध
विक्षिप्त मनोदशा से पीडित
जंग लग चुकी बुद्धि
जो हो चुकी है गिरवी,
विज्ञान और तर्क से दूर
बढ़ रहे लगातार
धर्मान्धता की ओर

वे नहीं चीन्ह पाते
इंसानियत का उजला रास्ता
भेडों की पंक्ति की मानिंद
चले जा रहे एकदम सीधे
रास्ते के अगल बगल
नहीं देख पाते गहरी खाईयाँ
वे नहीं मानते इंसानियत
उनके लिए धर्म है सबसे ज़रूरी

वे आशाओं को धूमिल कर
शर्मसार कर रहे हैं इंसानियत
उन्हें नहीं जगा पा रहे हैं
उनके धर्म के पहरुआ

वे नेस्तनाबूद करने पर उतारू हैं
खुदा कि खूबसूरत दुनिया
उनके लिए सवेरा नहीं होता
वे धर्मान्धता को मानते हैं
अपने जीवन आखिरी रास्ता

समझाना होगा उन्हें
कि उनकी पीढियाँ बढ़ रही हैं
आगे...बहुत आगे
इस संक्रमण के मुहाने पर
धर्म की व्याख्याएँ हो रही हैं असंगत
अब पहचान लिया गया है
धर्म से पहले इंसान का होना ज़रूरी है

कि धर्म कैसे रहेगा सुरक्षित
जब इंसान ही नहीं होंगे धरती पर...