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जहाँ पाँव टिकते / दिनेश कुमार शुक्ल
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जहाँ पाँव टिकते
बेचैन है
और चुप है
चाँद बेहद अकेला गगन में
न बादल न तारे न कुहरा न किरनें
न पक्षी न पानी न उल्का न लहरें
उठे ज्वार
तो अब उठे किस समन्दर
कहीं कोई मन भी नहीं
जिसमें खोई हुई धुन
जगाती नया राग
न इच्छा न तृष्णा
न ही कामना वासना कुछ नहीं अब
न सपनों का वैभव
न निद्रा का सरगम
न जगना न सोना न पाना न खोना
न बेला न चम्पा-जुही-रातरानी
न धीरे से छुपता हुआ कोई साया
न मृग है न मृगया
न भय है न सिहरन
कहीं कुछ तो होता
जहाँ पाँव टिकते
जहाँ प्रेम जगता
जहाँ बैर ठनता
न अब चन्द्रमा है
न अब रात बाकी
कहीं कुछ तो होता
जो इस मौन को
सुन के कहता
कि हाँ ऽऽऽ !