भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज़हन में बल्लम / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
शिला सीने पर धरी है
घुट रहा है दम
क्या इसी दिन के लिए
पैदा हुए थे हम
पसलियों के चटखने को
व्यर्थ जाने दूँ
डबडबाई आँख
बाहर निकल आने दूँ
गड़ रहा है हन में बल्लम
बेरहम ठोकर समय की
बेशरम ग़ाली
किस तरह इनकी चुकाऊँ
ब्याज पंचाली
खोपड़ी में फट रहे हैं बम