भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज़ाद-ए-सफर / राशिद 'आज़र'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये ज़िंदगी का सफ़र अजब है
कि इस में जो भी मिला
वो मिल कर बिछड़ गया है
चला था जब कारवाँ हमारा
नए उफ़ुक़ की तरफ़
तो हम भी
जवाँ उमंगो के पासबाँ थे

क़दम क़दम पर
जब एक इक कर के
सब हमारे रफ़ीक़ छूटे
तो जिन नई मंज़िलों की जानिब
चले थे कल हम
वो सब उफ़ुक़ की तरह गुरेज़ाँ
ख़ला में तहलील हो गई थीं

मैं इस मसाफ़त से थक गया हूँ
मगर मुझे कोई ग़म नहीं है
मैं अपने बाद आने वाली नस्लों के हक़ में
अब ये दुआ करूँगा
वो मंज़िले जिन के वास्ते मैं ने ज़िंदगी का
अज़ीज़ सरमाया तज दिया है
वो मंज़िलें उन की गर्द-ए-पा हों
वहाँ से जब वो
गुज़र के आगे की मंज़िलों की तरफ़ बढ़ें
मेरी सारी खुशियों को अपना ज़ाद-ए-सफ़र समझ कर
वो साथ रख लें