ज़िद्दी चीखें / ज्योत्स्ना मिश्रा
श! श! श!
चुप हो जाओ लोरियों
चीखें लौट आयी हैं
नये तेवरों, नये स्वरों के साथ!
जिद्दी चीखें
आँधियों की तरह क्रूर
साहिलों की तरह बेहिस
फड़फड़ातीं हैं तो बीच बहार में
शहर के शहर वीरान कर देतीं
कि चीखों के चमगादड़
अँधेरे कोनों में पनपते हैं
अब कोई गीत नहीं बनेगा
चीखें हावी हैं वक्त पर
कविता पलायन है
गीत मुक्ति है
चीखें तुम्हें मुक्त नहीं होने देंगीं
वो हर सुर की कुंजियाँ तोड़ देंगीं
और हर मासूमियत के मुँह पर
मोहर लगा देगीं
अजनबीयत के जेलखाने की
यही असल पहचान होगी कि कौन किससे कितना अजनबी है
अरे अरे रुको, मुहब्बत का नाम मत लो
चीखने के लिये बेमुरव्वती लाजिमी है
चलो तुम भी चीखो
जोर से चीखो
दम लगाकर
दूसरी चीखों से तेज
चीखते रहो
तब तक कि जब तक गले में दम है
कि चीखोगे तो जिंदा रहोगे
वरना...