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ज़िन्दगी थोड़ी होती / रामकृपाल गुप्ता
Kavita Kosh से
जी कहता है ज़ोर जोर चिल्लाऊँ
कुछ रोऊँ कुछ गाऊँ
क्षण भर को ही सही
किन्तु पागल बन जाऊँ।
चेतन मन, रे भार बड़ा दुर्वह है,
चूर-चूर सपने, पैने कण
चुभन बड़ी दुस्सह है।
मैं भटका या मंज़िल भटक गई है
तुहिन भरा दिन एक निरर्थक ढला,
साँझ पीली सीअटक गईहै।
ठहर-ठहर री साँझ
एक क्षण-और एक क्षण
अन्धकार का गर्त बड़ा गहरा है।
एकाकी पथ पर मैं साथी ढूँढ रहा हूँ
विश्व हुआ बहरा है।
किसको दर्द सुनाऊँ?
अरे! और ज़िन्दगी थोड़ी होती
किन्तु निगोड़ी, उषा की हँसी जग में बोती
अंकुर-अंकुर के प्रकाश की मसृण शाल में
रात हुई मैं, पाँव पसारे सुख से सोता।