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ज़िन्दगी समझने लगी है / पंछी जालौनवी
Kavita Kosh से
एक सुर्ख़ से अंधेरे में
सूरज की नारंजी थकन समेटे
दिन रात के आलसी
अंधेरे उजाले में
ख़ुदको क़ैद कर लिया मैंने
ज़िन्दगी के पांव में
बेड़ियाँ डाल रखी हैं
बाहर की दुनिया के मंज़र
मेरे कमरे के अंदर
जदीद तरीन
टेक्नोलॉजी से पहुँच रहे हैं
मैं अपने अंदर की दुनिया
बाहर के मंज़र में देख रहा हूँ
पता नहीं क्यूं
इतना ज़्यादा सोच रहा हूँ
कि अब इन सांसों की भी
चहल क़दमी
मुझको खेलने लगी है
ज़िन्दगी शायद
ज़िन्दगी का मतलब
समझने लगी है॥