जागो प्राणों के दीप / रामगोपाल 'रुद्र'
जागो प्राणों के दीप! नयन की राह अँधेरी है।
वैसे तो जाग रही भू पर, जुगनू की जोत बहार,
ऊपर तारों के तडित्कन्द फूले ज्यों हरशृंगार;
लेकिन यह कालनिशा ऐसी घिर आई है सब ओर,
पथ और अन्ध हो गया था, बँधे जो लौ के बन्दनवार;
मन क मृग दृग से दूर, ताक में तिमिर-अहेरी है!
तम का अनन्त विस्तार, अजब सन्नाटे क यह देश
साँसे बनतीं सनसनी, किरण क वर्जित अनधिप्रदेश!
ऐसे में जो बज उठी बीन-सी, भीनी-सी पदचाप,
कुछ और गहन हो गया नील मणियों क विषल-निवेश;
किस मणिधर को धरने आई यह रात-सँपेरी है?
दशार्कुल मेरी साध, साधना से पाकर संकेत,
गुंजों से कर शृंगार, चली श्यामाभिसार के हेत;
घेरे न लाज, दृग लिये मूँद; पर आगे यह दुष्पार!
प्रकटो प्रकाश मेरे, तम पर बाँधो ज्वाला का सेत;
देखो तो, इस नेही ने भी क्या पीर अँगेरी है!