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जिनगी आरोॅ अखबार / अशोक शुभदर्शी

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जिन्दगी नै होय छै
कल के अखबारोॅ जैसनोॅ बासी
पुरानोॅ अखबार जैसनोॅ
हरगिज नै

जेकरा रखलोॅ जाय छै
घरोॅ के कोना-कोना में समेटी केॅ
बेचै लेॅ
औने-पौने दामोॅ में
ठेला वाला के पास
या कोय पड़ोसी मांगै लेॅ एैला पर
ओकरा मुफ्त में दै लेॅ वास्तें

जिन्दगी नै होय छै
आजकोॅ अखबार के जैसनोॅ
जे काफी होय छै
रुलाय दै वास्तें
सुबह-सुबह ही

जिनगी बदली जाय छै
बदली रहलोॅ दिनोॅ नांकी
जागै छै रोज
सुबहे नांकी
चहकी रहलोॅ चिड़िया नांकी

जिनगी नया होय जाय छै
जेनां
जनम लेतें बच्चा
उगी रहलोॅ कोंपल
आरो खिली रहलोॅ फूलोॅ केॅ साथ

जिनगी साथोॅ में राखै छै
अपनोॅ बीतलोॅ समय केॅ
अपनोॅ स्मृति केॅ तहखाना में
जलावन नांकी
जें ओकरा लै जाय छै
पूरा तरोताजा बनाय केॅ
आवै वाला कल के तरफें

जिनगी में दुख होय छै
आरो यहे सच छेकै
मतुर जिनगी नै छेकै
अखबारोॅ में छपलोॅ विज्ञापन।