जीवन / जय जीऊत
जीवन को चाहे तुम जिस नाम से पुकार लो
वह मुझे रास आने वाली नहीं
तुम ने कहा था-
"जीवन एक उपवन है
धूप और छांव खेलते जहां
आंख-मिचौली
निरन्तर-निरन्तर ।
छावं के पांवों की आहट तो
मैंने सुनी है अक्सर
मगर उसके दर्शन कभी कर न पाये
और धूप !
धूप से तो अपना चोली-दामन का साथ है
जनम-मरण का नाता है
ठीक जैसे यत्रणाओं का तड़प से होता है ।
तुमने कहा था-
"जीवन एक युद्ध-स्थल है
हार और जीत के बीच जहां
होती रहती प्रतिस्पर्धा
निरन्तर-निरन्तर ।
हार के अतिशय कदम तो
अपनी ही डगर को जाते हैं अक्सर
चाहे छोटे या बड़े हों सफर
और जीत !
जीत का तो अपने से जानी दुश्मनी है
जनम-जनम की वैरी है
ठीक जैसे श्रृंगार की सादगी से होती है
ऐसे बेमतलब का जीवन
जिसमें आदमी
जिये कम, मरे अधिक
जीते कम, हारे अधिक
मुझे सदा रुसवा करता रहा
मेरे हिस्से के फूलों को
दूसरों की नज़र करता रहा
और मुझे कांटों की चुभन के बीच
शयन कराता रहा सदा ।
फिर भी तुम दावा करते हो
कि जीवन एक गुलशन है !
मेरी एक विनती है मेरे सहयात्री
तुम जीवन को
नये-नये नामों के खोल मत पहनाओ
मत बहलाओ मेरी उदसियों को
अनेकानेक संबोधनों से
क्योंकि
जीवन को चाहे तुम जिस नाम से पुकार लो
वह मुझे रास आने वाला नहीं ।