जीवन की ख़ातिर / पंकज परिमल
काराओं में पड़े हुए हैं
जीवन की ख़ातिर
सूरज आकर
द्वार बजाकर
लौट गया चुप-चुप
बल्ब जले
घर रौशन-रौशन
लगे अन्धेरा घुप
द्वार तलक जाकर लौटे हैं
हवा तलक शातिर
भाजी वाला
हाँक लगाता
उस तक से है भय
सन्नाटा है
भय पसरा है
पसरा है संशय
बाँध रहे नव लक्ष्मण-रेखा
सब लक्ष्मण माहिर
कई दिनों से
बन्द दुकानें
चूहे तक गुमसुम
रोग-शोक का
बड़ा पहाड़ा
बाँच चेतना गुम
अन्तर्व्यथा अधिक गोपन है
थोड़ी-सी जाहिर
संकटग्रस्त
नौकरी भी है
कब जाने क्या हो
तिस पर भी सब
कहते रहते
अरे ! चैन से सो
चढ़ तो जाएँ ऊँचा पर्वत
कब जाएँ पर गिर
नज़रबन्द-सा
जीवन जीते
बिन अपराध, सखे !
व्यंजन भीतर
जाते हैं पर
वो बिन स्वाद भखे
रुके हुए नयनों के आँसू
कब जाएँ पर तिर
जिस विदेश का
स्वप्न बड़ा था
अब वो भी कारा
फँसे स्वजन की
कुशल मनाते
अब मन भी हारा
कहते सब जन, धीरज रखिए
ईश्वर नाम सुमिर